सत्ता के नशे में भला कोई ऐसे चूर होता है! (कविता ) -प्रसिद्ध यादव।
अन्नदाता बेहाल
भूखा मरे।
युवा बेरोजगार
दर -दर भटके ।
सरकारी संपदा नीलाम
पूंजीपतियों के पांव बढ़े।
जनता से ऐसे दूर होता है!
कोई ऐसे चूर होता है।
ये कैसी आत्मनिर्भरता है?
न चैन है न शुचिता है
दो जून रोटी को तरसते बच्चे
अर्थव्यवस्था खाई गच्चे ।
सुरक्षित हाथों में कौन रक्षित?
सपना ऐसे चकनाचूर होता है।
कोई ऐसे चूर होता है !
झोली भर के दिया है
मुठी भर के भी दे -दे।
वो भी नही तो रहने दे
अपने नियति से जीने दे ।
ऐसे कोई मजबूर होता है।
कोई ऐसे चूर होता है !
कैसा विजन,कैसा रीजन
आया मंदी का सीजन ।
ऐसा सुरूर होता है!
सत्ता के नशे में भला
कोई ऐसा चूर होता है।
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