खगौल में सड़कों किनारे प्रतिमाओं के दर्शन के लिए बैठे श्रद्धालुओं !-प्रसिद्ध यादव की आंखों देखी।
आज भी अंतिम व मध्य पायदानों के लोगों के बीच देवी दुर्गा के प्रति आस्था कम नहीं है। संभ्रांत लोग लग्जरी कारों से देश प्रदेश के होटलों में ठहरकर पिकनिक के रूप में त्योहारों को मनाते हैं, रहन सहन ,खानपान ,पहनावा ,ओढावा ,चाल चलन सब बदल गया है लेकिन ग्रामीणों परिवेश के गरीब गुरबों की हालत जस की तस है। मेले में फुटपाथी दुकानदारों जलेबी, गोलगप्पा, चाट ,मूंगफली वाले की दुकानें इन्हीं गरीबों से गुलजार रहता है। यहां भी गरीब गरीबों के काम आते हैं।
खगौल के मोतिचौक से लक तक ,बड़ी खगौल तक,घिरनी पर तक दुकानों के आगे चबूतरे पर महिलाएं, पुरूष बैठे बैठे प्रतिमाओं के दर्शन देर रात करते हैं।हाथों में गुड़ की सोंधी जलेबी परिवार के साथ बैठकर खाते हुए प्रतिमाओं को निहारना गज़ब लगता है। डीजे व लाइटिंग में दूसरी दुनिया की अनुभूति होती है। निम्तल्ला रोड ,परमेश्वर बाबू के पास की प्रतिमा की बैंड बाजा बड़ी लाजवाब था।मित्र संजय स्वर्णकार ने बताया कि यह बैंड यूपी के मुजफ्फरनगर के था। बड़ी खगौल का अखाड़ा आज भी आकर्षक है, वही गोरगवां की प्रतिमा को देखने के लिए सबसे अधिक लोग व्याकुल रहते हैं।सबसे अधिक आस्था इसी प्रतिमा में लोगों को होती है।इसे लोग शक्ति पीठ के रूप में देखते हैं।बड़ी खगौल व गोरगवां में आज भी सप्तमी से लेकर नवमी तक यानी तीन दिनों तक विदेशिया नाच होती है। गोरगवां मूर्ति विसर्जन में भी लौंडा के नाच बड़ी धूमधाम से ट्रैक्टर पर होता है।इस नाच में जोकर गोरगवां के ही है जो वर्षों से चेहरे पर कालिख ,चुना पोतकर ,टोपी लगाकर लोगों को खूब गुदगुदाते हैं।ये पेशे से ग्रामीण चिकित्सक हैं जो मेरे गांव में प्रैक्टिस करते हैं।ऐसा करने के पीछे इनकी मान्यता है कि इनके माता पिता को कोई संतान प्राप्ति नही होती थी तो यही मन्नत मांगने पर हुई थी तो यह सिलसिला शुरू है।
सबसे बड़ी इस प्रतिमा विसर्जन की खासियत है कि यह प्रतिमा कंधे पर ढोई जाती है जिसे हमारे गांव के मांझी समाज कई दशकों से इसे निर्वहन करते आ रहे हैं।इसे ढोने के लिए कोई मजदूरी मंदिर प्रबंधन से नहीं लेते हैं लेकिन जो चढ़ावा आता है वो मांझी लोगों की होती है और ये चढ़ावा हजारों हजार की होती है।
खगौल लक ,गाड़ीखाना ,बौआ जी पर भी पहले नाच होता था लेकिन बदलते समय में सब बदल गया।सरारी से भी प्रतिमा खगौल में आती है लेकिन पहले जैसा नहीं रहा।अगर परम्पराओं को निर्वहन हो रहा है तो वो बड़ी खगौल व गोरगवां में ही हो रहा है।मोतिचौक, काली स्थान घनश्याम स्कूल,कस्तूरबा स्कूल, लोको कॉलोनी, लंका कॉलोनी ,बालिग़ स्कूल की प्रतिमाएं आकर्षक लगती है।दूर दराज ,गांवों से लोग आकर मेला की शक्ल देते हैं।
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