जयशंकर प्रसाद रचित ' कामायनी ' महाकाव्य का संक्षिप्त परिचय
गोर्की की ' माँ ', प्रेमचंद का ' गोदान ' और जयशंकर प्रसाद का' कामायनी ' महाकाव्य का साहित्य में अलग स्थान है। कामायनी रचते समय प्रसाद के समक्ष युगों का सभ्यता-सत्य तो था ही, तत्कालीन विश्व-व्यवस्था के विषमताग्रस्त चित्र भी थे। पूँजीवादी पद्धति का सभ्यता-विकास साम्राज्यवाद में परिणत हुआ। इस सभ्यता के केन्द्र में प्रकृति और मनुष्य का दोहन व हिंसा है। “प्रसाद जी की आँखों के सामने पूँजीवाद की निर्माणात्मक कार्यावली तो थी ही, उसके साथ ही उसकी विनाशशील प्रवृत्तियों का जीता जागता नज़ारा, प्रथम महायुद्ध और उसके उपरान्त नयी अन्तरराष्ट्रीय परिस्थित थी।” इससे उपजी विषमता और शोषण का दृश्य श्रद्धा के कथनों में परिलक्षित हुआ है-
“विश्व विपुल-आतंक-त्रस्त है अपने ताप विषम-से,
फैल रही है घनी नीलिमा अंतर्दाह परम- से।…
जगती-तल का सारा क्रंदन यह विषमयी विषमता,
चुभने वाला अंतरंग छल अति दारुण निर्ममता ...
यह विराग संबंध हृदय का कैसी यह मानवता
प्राणी को प्राणी के प्रति बस बची रही निर्ममता
जीवन का संतोष अन्य का रोदन बन हँसता क्यों?
एक-एक विश्राम प्रगति को परिकर सा कसता क्यों?”
“तुच्छ नहीं है अपना सुख भी श्रद्धे वह भी कुछ है,
दो दिन के इस जीवन का तो वही चरम सब कुछ है।”
“तुम कहती हो विश्व एक लय है, मैं उसमें
लीन हो चलूँ? किन्तु धरा है क्या सुख इसमें।”
"...अपने में सब कुछ भर कैसे व्यक्ति विकास करेगा,
यह एकांत स्वार्थ भीषण है अपना नाश करेगा।
औरों को हँसता देखो मनु―हँसो और सुख पाओ,
अपने सुख को विस्तृत कर लो सब को सुखी बनाओ!”
शेष....
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