कॉरपोरेट व पूंजीपतियों मित्रों की मोदी सरकार ! पी चिदंबरम।

   


 


पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने मोदी सरकार को  इस पर टैग किया है।

अगर मौजूदा सरकार के पास सतत् और सुसंगत आर्थिक दर्शन होता, तो किसी चकित करने वाले पैकेज को छोड़ कर आने वाले बजट की मुख्य विशेषताओं का पूर्वानुमान लगाना संभव होता। मगर दुर्भाग्य से, ऐसा नहीं है। यह अब अतीत के पूंजीवाद से भाई-भतीजावाद, उदारीकरण से व्यापारिकता, प्रतिस्पर्धा से कुलीनतंत्र, रेवड़ी से मुफ्त अनाज और किसान सम्मान से कानूनी रूप से बाध्यकारी एमएसपी का विरोध करने की ओर बढ़ चुका है। अब अर्थव्यवस्था की स्थिति की व्याख्या करने और यह तय करने की जिम्मेदारी नागरिकों पर छोड़ देनी ही समझदारी है कि बजट 2025-26 वर्तमान चुनौतियों का पर्याप्त जवाब है या नहीं।


गिरती विकास दर

जहां तक मौजूदा स्थिति का सवाल है, यह आमतौर पर स्वीकार किया जाता है कि आर्थिक विकास दर गिर रही है। जबकि हम छह से सात फीसद के बीच की विकास दर पर गर्व कर रहे हैं, दावा करते हैं कि भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्था है- जो सच भी है। अन्य बड़ी अर्थव्यवस्थाएं धीमी दर से बढ़ रही हैं: संयुक्त राज्य अमेरिका 2.7 फीसद और चीन 4.9 फीसद की दर से। हालांकि, हम भूल जाते हैं कि, 2024 में, संयुक्त राज्य अमेरिका ने (वर्तमान कीमतों में) अपने सकल घरेलू उत्पाद में 787 अरब अमेरिकी डालर और चीन ने अपने सकल घरेलू उत्पाद में 895 अरब अमेरिकी डालर जोड़े। भारत की तेज विकास दर ने सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 256 अरब अमेरिकी डालर जोड़े, और चीन तथा भारत के बीच का अंतर बढ़ गया है। सबक: भारतीय अर्थव्यवस्था को बड़ी दो अर्थव्यवस्थाओं के साथ तालमेल बिठाने के लिए लगातार और तेज दर से बढ़ना होगा।

विकास दर गिर रही है, क्योंकि विकास के मुख्य संचालक गिर रहे हैं: खपत, सार्वजनिक निवेश और निजी निवेश। इनमें से, निजी खपत में गिरावट स्पष्ट है। बहुत अमीर लोगों (जनसंख्या के एक फीसद से भी कम) के एक पतले से हिस्से के अभद्र उपभोग से तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था का भ्रम पैदा हो रहा है। मध्यवर्ग (30 फीसद) और गरीब तबके (69 फीसद) ने अपने उपभोग में कटौती की है। विवेकाधीन खर्च कम है। यह छोटे शहरों और गांवों में दिखाई दे रहा है। बीती तिमाहियों में निजी अंतिम उपभोग व्यय (पीएफसीई) आंकड़े (स्थिर मूल्यों में), इस प्रकार हैं: 22,82,980 करोड़ रुपए, 23,42,610 करोड़ रुपए और 24,82,288 करोड़ रुपए। सरकारी अंतिम उपभोग व्यय (जीएफसीई) भी बहुत बेहतर नहीं है: उन्हीं तीन तिमाहियों के आंकड़े 3,36,707 करोड़ रुपए, 3,83,709 करोड़ रुपए और 4,00,698 करोड़ रुपए हैं।

उपभोग और निवेश

सुस्त उपभोग के मुख्य कारण हैं: एक, मुद्रास्फीति, खासकर खाद्य कीमतों में और दूसरा, कम और लगभग स्थिर मजदूरी। 2017 से 2023 के बीच छह वर्षों में, कृषि श्रमिकों (पुरुष) की वास्तविक मजदूरी 138 रुपए प्रति दिन से बढ़कर 158 रुपए प्रतिदिन हो गई है। महिलाओं के लिए मजदूरी 40 रुपए कम है। निर्माण श्रमिकों (पुरुष) के लिए, प्रति दिन मजदूरी 176 रुपए से बढ़कर 205 रुपए हो गई है; महिलाओं के लिए यह 45 रुपए कम है। यह प्रतिदिन मजदूरी एक प्रकार से इस बात को याद दिलाती है कि लाखों लोग ऐसे हैं, जो अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

पिछले दस वर्षों के दौरान सार्वजनिक (यानी सरकारी) निवेश, सकल घरेलू उत्पाद (वर्तमान कीमतों में) के 6.7 से 7.0 फीसद के बीच अटका हुआ है। केंद्र सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों का पूंजीगत व्यय जीडीपी (2019-20) के 4.7 फीसद से घटकर 3.8 फीसद (2023-24) हो गया है। निजी निवेश जीडीपी के 21 से 24 फीसद के बीच रहा है। अगर आप संख्याओं को ग्राफ पर अंकित करते हैं, तो वे लगभग सीधी रेखा के रूप में दिखाई देंगी।

महंगाई, बेरोजगारी और कर

महंगाई एक बड़ी समस्या है। 2012 से 2024 के बीच खाद्य मुद्रास्फीति औसतन 6.18 फीसद रही है। स्वास्थ्य सेवा की लागत में 14 फीसद की वार्षिक दर से वृद्धि हुई है। शिक्षा में मुद्रास्फीति की दर लगभग 11 फीसद रही है। सीएमआइई के अनुसार, दिसंबर 2024 में अखिल भारतीय बेरोजगारी दर 8.1 फीसद थी। उम्र, शिक्षा या लिंग के आधार पर संख्या को विभाजित करने पर अधिक निराशाजनक तस्वीर सामने आएगी।

बजट पूर्व बहस में जो बात जोर-शोर से कही जा रही है, वह है आयकरदाताओं को राहत। वित्तवर्ष 2023-24 में आयकर रिटर्न दाखिल करने वाले व्यक्तियों की संख्या 8,09,03,315 या जनसंख्या का 6.68 फीसद थी। फाइल करने वालों में से 4,90,00,000 लोगों ने ‘शून्य कर’ रिटर्न दाखिल किया। करदाताओं को राहत जहां महत्त्वपूर्ण है, वहीं दिहाड़ी मजदूरों को राहत अनिवार्य है। मौजूदा स्थिति के अन्य प्रमुख तत्त्व हैं खराब कर ढांचा, विशेष रूप से जटिल जीएसटी, जो गरीबों सहित सभी लोगों को प्रभावित करता है।

सरकार ने कारपोरेट समर्थक और मित्रतावादी पूंजीपतियों की समर्थक होने का ‘टैग’ हासिल कर लिया है। कारपोरेट मुनाफा 2022-23 में 10,88,000 करोड़ रुपए था, जो 2023-24 में बढ़कर 14,11,000 करोड़ रुपए हो गया। दो वर्षों के दौरान, अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों ने क्रमश: 2,09,144 करोड़ रुपए और 1,70,000 करोड़ रुपए के कारपोरेट कर्ज बट्टे-खाते में डाल दिए। राजकोषीय घाटा और राजस्व घाटा, कमरे में हाथियों की जोड़ी की तरह मौजूद है। लोग नजरें गड़ाए हुए हैं कि सरकार इन मुद्दों को कैसे संबोधित करेगी। वित्तमंत्री और उनके सलाहकारों के पास समस्याओं का समाधान हो सकता है, लेकिन दिल्ली में यह सबसे खराब रहस्य है कि वित्तमंत्री कोई प्रस्ताव पेश तो कर सकती हैं, मगर उसको मंजूरी प्रधानमंत्री ही देंगे।


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