अनुच्छेद 342 अनुसूचित जनजातियों की पहचान और उनके उत्थान के आधार !- प्रो प्रसिद्ध कुमार।



 

अनुच्छेद 342 एक महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रावधान है जिसने अनुसूचित जनजातियों की पहचान और उनके उत्थान के लिए आधार प्रदान किया है। 

संविधान का अनुच्छेद 342 भारत में अनुसूचित जनजातियों  संबंधित है। यह अनुच्छेद राष्ट्रपति को किसी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के संबंध में, और राज्य के मामले में राज्यपाल से परामर्श करने के बाद, सार्वजनिक अधिसूचना द्वारा उन जनजातियों या जनजाति समुदायों या उनके हिस्सों या समूहों को विनिर्दिष्ट करने का अधिकार देता है, जिन्हें संविधान के प्रयोजनों के लिए उस राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के संबंध में अनुसूचित जनजाति माना जाएगा। संसद के पास कानून द्वारा इस सूची में किसी भी जनजाति को शामिल करने या बाहर करने की शक्ति भी है।

अनुच्छेद 342 का समाज पर प्रभाव और विकास की स्थिति:

अनुच्छेद 342 का मुख्य उद्देश्य उन समुदायों की पहचान करना था जो ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रहे हैं, सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं, और जिनकी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान है। इन समुदायों को अनुसूचित जनजाति के रूप में अधिसूचित करके, सरकार ने उनके उत्थान और मुख्यधारा में लाने के लिए विशेष प्रावधान और नीतियां लागू की हैं। इनमें आरक्षण, शिक्षा, स्वास्थ्य, आजीविका और सांस्कृतिक संरक्षण से संबंधित योजनाएं शामिल हैं।

विकास की स्थिति:

सकारात्मक प्रभाव:

शिक्षा: आरक्षण और विशेष छात्रवृत्ति योजनाओं के कारण अनुसूचित जनजाति के छात्रों के लिए शिक्षा तक पहुंच बढ़ी है। उच्च शिक्षा संस्थानों में उनकी उपस्थिति में भी वृद्धि हुई है।

रोजगार: सरकारी नौकरियों में आरक्षण ने अनुसूचित जनजाति के व्यक्तियों को रोजगार के अवसर प्रदान किए हैं, जिससे उनके आर्थिक सशक्तिकरण में मदद मिली है।

राजनीतिक प्रतिनिधित्व: लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में सीटों के आरक्षण ने अनुसूचित जनजाति के लोगों को राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेने और अपनी आवाज उठाने का अवसर दिया है।

कल्याणकारी योजनाएं: विभिन्न सरकारी योजनाएं जैसे वन अधिकार अधिनियम, मनरेगा, और जनजातीय उप-योजना ने अनुसूचित जनजाति के जीवन स्तर को बेहतर बनाने, भूमि अधिकारों को सुरक्षित करने और आजीविका के अवसर पैदा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

जागरूकता: अनुच्छेद 342 के तहत पहचान और संवैधानिक प्रावधानों ने जनजातीय समुदायों के अधिकारों और उनकी विशिष्ट संस्कृति के प्रति समाज में जागरूकता बढ़ाने में मदद की है।

चुनौतियां और अपूर्ण विकास:

गरीबी और भूमि विस्थापन: कई जनजातीय समुदाय अभी भी गरीबी, अशिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी से जूझ रहे हैं। विकास परियोजनाओं (जैसे बांध, खनन) के कारण बड़े पैमाने पर भूमि विस्थापन और आजीविका का नुकसान हुआ है, जिससे उनकी पारंपरिक जीवन शैली बाधित हुई है।

शिक्षा की गुणवत्ता: शिक्षा तक पहुंच में सुधार के बावजूद, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की कमी, ड्रॉपआउट दर और भाषा की बाधाएं अभी भी चुनौतियां बनी हुई हैं।

स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं: दूरदराज के क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, कुपोषण और विभिन्न बीमारियों से जनजातीय समुदायों में मृत्यु दर अभी भी चिंताजनक है।

सांस्कृतिक क्षरण: आधुनिकीकरण और बाहरी प्रभावों के कारण कई जनजातीय समुदायों की विशिष्ट भाषाओं, रीति-रिवाजों और परंपराओं पर खतरा मंडरा रहा है।

योजनाओं का प्रभावी कार्यान्वयन: कई कल्याणकारी योजनाओं का प्रभावी ढंग से कार्यान्वयन नहीं हो पाता है, जिससे उनका लाभ वंचितों तक पूरी तरह से नहीं पहुंच पाता। भ्रष्टाचार और नौकरशाही बाधाएं भी इसमें एक भूमिका निभाती हैं।

भेदभाव और शोषण: शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में जनजातीय समुदायों को अभी भी सामाजिक भेदभाव और शोषण का सामना करना पड़ता है।

आंतरिक असमानताएं: अनुसूचित जनजातियों के भीतर भी विभिन्न समुदायों के बीच विकास के स्तर में असमानताएं हैं। कुछ जनजातियां दूसरों की तुलना में अधिक लाभान्वित हुई हैं।

समता मूलक समाज में जुटा है कि नहीं:

भारतीय संविधान एक समता मूलक समाज की स्थापना का लक्ष्य रखता है, जहाँ सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के समान अवसर और अधिकार प्राप्त हों। अनुच्छेद 342 और उससे संबंधित प्रावधान इसी लक्ष्य की ओर एक कदम हैं। हालांकि, यह कहना मुश्किल है कि अनुसूचित जनजाति का समाज अभी तक पूरी तरह से समता मूलक समाज में जुड़ पाया है।

कुछ हद तक जुड़ाव:

संवैधानिक प्रावधानों और सकारात्मक भेदभाव (जैसे आरक्षण) ने जनजातीय समुदायों को शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक भागीदारी के माध्यम से मुख्यधारा के समाज के साथ जुड़ने का अवसर प्रदान किया है।

शहरी क्षेत्रों में रहने वाले और शिक्षा प्राप्त करने वाले कई जनजातीय व्यक्ति अब विभिन्न व्यवसायों में सफलतापूर्वक काम कर रहे हैं और सामाजिक रूप से अधिक एकीकृत हो रहे हैं।

अभी भी दूरी:

हालांकि, दूरदराज के क्षेत्रों में रहने वाले अधिकांश जनजातीय समुदाय अभी भी मुख्यधारा के समाज से कटे हुए हैं। उनकी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान, भाषा और जीवन शैली उन्हें अलग करती है।

सामाजिक पूर्वाग्रह और भेदभाव अभी भी मौजूद हैं, जो उन्हें समता मूलक समाज में पूरी तरह से घुलने-मिलने से रोकते हैं।

आर्थिक असमानताएं बहुत बड़ी हैं, जिससे वे समाज के अन्य वर्गों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में असमर्थ महसूस करते हैं।

यह  उनके विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, लेकिन अभी भी एक लंबा रास्ता तय करना है। चुनौतियों का समाधान करने और सभी जनजातीय समुदायों को वास्तविक रूप से समता मूलक समाज में शामिल करने के लिए सतत प्रयासों, संवेदनशील नीतियों और प्रभावी कार्यान्वयन की आवश्यकता है। यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि विकास उनके सांस्कृतिक पहचान और पारंपरिक जीवन शैली का सम्मान करे और उन्हें मुख्यधारा में एकीकृत करते हुए उनकी विशिष्टता को बनाए रखे।



 

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