अनुसूचित जातियों और जनजातियों में सदियों से ऐतिहासिक व सामाजिक भेदभाव ! प्रो प्रसिद्ध कुमार।



सदियों से चली आ रही जातिगत असमानता और छुआछूत की प्रथा ने इन समुदायों को सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिये पर धकेल दिया है। शिक्षा, संपत्ति और अवसरों से वंचित रहने के कारण ये समुदाय अभी भी मुख्यधारा में पूरी तरह से शामिल नहीं हो पाए हैं।

इसमें   गरीबी का स्तर अपेक्षाकृत अधिक है। भूमिहीनता, रोजगार के सीमित अवसर और पारंपरिक व्यवसायों पर निर्भरता उन्हें आर्थिक रूप से कमजोर बनाती है।

शिक्षा का अभाव: यद्यपि शिक्षा के क्षेत्र में सुधार हुए हैं, फिर भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुंच और ड्रॉपआउट दर अभी भी एक चुनौती है, खासकर ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों में।

भूमि संबंधी मुद्दे: जनजातीय समुदायों के लिए भूमि उनके जीवन और संस्कृति का अभिन्न अंग है। वन भूमि अधिकारों, विस्थापन और भूमि अतिक्रमण के मुद्दे उनके लिए बड़ी चुनौती बने हुए हैं।

स्वास्थ्य संबंधी असमानता: स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच और जागरूकता की कमी के कारण इन समुदायों में स्वास्थ्य संकेतक अक्सर राष्ट्रीय औसत से कम होते हैं।

प्रशासनिक चुनौतियां: योजनाओं के क्रियान्वयन में कमियां, भ्रष्टाचार और जागरूकता की कमी भी इन समुदायों तक लाभ पहुंचने में बाधा डालती है।

रूढ़िवादी मानसिकता: समाज में अभी भी कुछ हद तक जातिगत भेदभाव की भावना मौजूद है, जो सामाजिक एकीकरण में बाधा डालती है।

 यह भी सच है कि स्वतंत्रता के बाद से भारत सरकार ने इन समुदायों के उत्थान के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं, जैसे:

संवैधानिक प्रावधान: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 के तहत अनुसूचित जातियों और जनजातियों को परिभाषित किया गया है और उनके लिए विशेष अधिकार दिए गए हैं, जिनमें शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में आरक्षण शामिल है।

कल्याणकारी योजनाएं: विभिन्न मंत्रालय, विशेष रूप से सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय और जनजातीय कार्य मंत्रालय, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, आजीविका और सामाजिक सुरक्षा से संबंधित कई योजनाएं चलाते हैं।

कानूनी सुरक्षा: अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम जैसे कानून उनके खिलाफ होने वाले अत्याचारों को रोकने और उन्हें न्याय दिलाने का प्रयास करते हैं।

इन प्रयासों के बावजूद, समतामूलक समाज की स्थापना के लिए अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। इसमें शिक्षा, आर्थिक सशक्तिकरण, सामाजिक जागरूकता और कानूनों के प्रभावी क्रियान्वयन पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।



 

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