मौलिक अधिकार राज्य सरकार की नीतियों का विरोध कर सकते हैं। प्रो प्रसिद्ध कुमार।
भारत में, मौलिक अधिकार राज्य सरकार की नीतियों का विरोध कर सकते हैं। यह भारतीय संविधान की एक महत्वपूर्ण विशेषता है।
कैसे मौलिक अधिकार राज्य की नीतियों का विरोध करते हैं:
राज्य पर प्रतिबंध: मौलिक अधिकार मुख्य रूप से नकारात्मक प्रकृति के होते हैं, जिसका अर्थ है कि वे राज्य (इसमें केंद्र और राज्य सरकारें, विधायिका, कार्यपालिका और अन्य प्राधिकरण शामिल हैं) को कुछ ऐसे कार्य करने से रोकते हैं जो नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन करते हैं।
न्यायसंगत और प्रवर्तनीय: मौलिक अधिकार न्यायसंगत होते हैं। इसका मतलब है कि अगर राज्य सरकार की कोई नीति या कार्रवाई किसी नागरिक के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करती है, तो वह नागरिक सीधे उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में जाकर अपने अधिकार को लागू करने की मांग कर सकता है। अनुच्छेद 32 (संवैधानिक उपचारों का अधिकार) सीधे सर्वोच्च न्यायालय में जाने का अधिकार देता है, जिसे डॉ. अम्बेडकर ने "संविधान की आत्मा और हृदय" कहा है।
अवैध घोषित करने की शक्ति: यदि विधायिका या कार्यपालिका का कोई कानून या निर्णय मौलिक अधिकारों का हनन करता है या उन पर अनुचित प्रतिबंध लगाता है, तो न्यायपालिका (सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय) उसे अवैध और असंवैधानिक घोषित कर सकती है।
सीमित अधिकार नहीं: हालांकि मौलिक अधिकार असीमित नहीं होते और उन पर "उचित प्रतिबंध" लगाए जा सकते हैं जैसे सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता, राज्य की सुरक्षा आदि के हित में), लेकिन इन प्रतिबंधों की औचित्य पर भी न्यायपालिका द्वारा समीक्षा की जा सकती है।
उदाहरण:
यदि कोई राज्य सरकार ऐसा कानून बनाती है जो धर्म, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव करता है, तो यह समानता के मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 14-18) का उल्लंघन होगा और इसे अदालत में चुनौती दी जा सकती है।
यदि राज्य सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 19) पर अनुचित प्रतिबंध लगाती है, तो नागरिक इसे अदालत में चुनौती दे सकते हैं।
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार नागरिकों को राज्य की मनमानी कार्रवाई से बचाने के लिए एक ढाल के रूप में कार्य करते हैं, और यह सुनिश्चित करते हैं कि राज्य की नीतियां और कानून संवैधानिक सीमाओं और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सम्मान करें।
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