मनुवादी युग में वंचितों को व ब्रिटिश साम्राज्य में भारतीयों को शोषण होता था।

  


 मनुवादी युग में, विशेष रूप से मनुस्मृति जैसे ग्रंथों में वर्णित वर्ण व्यवस्था के अनुसार, ब्राह्मणों और तथाकथित 'वंचित' (शूद्र और अस्पृश्य) वर्गों के बीच आय, प्रतिष्ठा और पद में गहरा भेदभाव और अंतर था। यह अंतर अंग्रेजों के शासनकाल में भी मौजूद था, लेकिन इसका स्वरूप और आधार अलग था।

मनुवादी युग में भेदभाव के मुख्य बिंदु:

जन्म आधारित व्यवस्था: मनुस्मृति में वर्ण व्यवस्था को जन्म से जोड़ दिया गया, जिससे व्यक्ति का सामाजिक और आर्थिक स्तर उसके जन्म से ही तय हो गया। इसका अर्थ था कि शूद्र वर्ग में जन्मा व्यक्ति आजीवन उसी स्थिति में रहेगा, भले ही उसमें अन्य गुणों का विकास हो।

पेशा और आय: प्रत्येक वर्ण के लिए विशिष्ट पेशे निर्धारित थे। ब्राह्मणों का कार्य अध्ययन, अध्यापन, यजन, याजन (पूजा-पाठ) आदि था, जिसके बदले उन्हें दान-दक्षिणा मिलती थी और समाज में उन्हें उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त थी। इसके विपरीत, शूद्रों के लिए मुख्य रूप से सेवा कार्य निर्धारित थे, जिन्हें "निकृष्ट" माना जाता था और उनसे प्राप्त आय प्रायः बहुत कम होती थी।

कानूनी और सामाजिक असमानता:

दंड व्यवस्था: मनुस्मृति में एक ही अपराध के लिए अलग-अलग वर्णों के लिए अलग-अलग दंड का प्रावधान था। ब्राह्मण को कम दंड मिलता था, जबकि शूद्र को उसी अपराध के लिए कई गुना अधिक दंड दिया जाता था।

शैक्षणिक अधिकार: शूद्रों को वेदों का अध्ययन करने और यज्ञिक कर्मकांडों में भाग लेने की अनुमति नहीं थी।

सामाजिक व्यवहार: शूद्रों के लिए कई सामाजिक प्रतिबंध थे, जैसे कि उच्च वर्ण की महिलाओं से बात न करना, गांव से बाहर निवास करना, और कुछ विशेष सेवाएं (नाई, धोबी आदि) उपलब्ध न होना।

विवाह के नियम: उच्च वर्ण के पुरुषों को निम्न वर्ण की महिलाओं से विवाह की कुछ शर्तों के साथ अनुमति थी, लेकिन शूद्र पुरुष को उच्च वर्ण की महिला से विवाह करने पर आपत्ति जताई गई थी।

संपत्ति और अधिकार: ब्राह्मणों को समाज में काफी उच्च स्थान प्राप्त था, और उन्हें भूमि अनुदानों के माध्यम से विशाल भूमि के स्वामी बनने का अवसर मिलता था। वहीं, शूद्रों के पास संपत्ति के अधिकार बहुत सीमित या न के बराबर थे।

अंग्रेजों के शासनकाल से तुलना:

अंग्रेजों के शासनकाल में भी भारतीयों के बीच भेदभाव था, लेकिन उसका आधार मुख्य रूप से औपनिवेशिक प्रभुत्व और नस्लीय श्रेष्ठता था। अंग्रेजों ने भारतीयों को अपने से कमतर समझा और उन्हें प्रशासनिक व उच्च पदों से दूर रखा। उनकी नीतियां भारतीयों को आर्थिक रूप से कमजोर करने और ब्रिटिश हितों को साधने के लिए थीं।

 ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान, एक ही पद पर काम करने वाले भारतीयों और भारतीयों के वेतन में काफी बड़ा अंतर था। अंग्रेजों को भारतीयों की तुलना में बहुत अधिक वेतन दिया गया था।

कुछ उदाहरणों से यह अंतर स्पष्ट होता है:


सैनिकों का वेतन: 1860 में एक भारतीय सैनिक का मासिक वेतन 7 रुपये था, 1911 तक जो बढ़ा 11 रुपये हो गया। वहीं, घुड़सवार सेना या हॉर्स की टॉप के एक ब्रिटिश कर्नल को 1,478 रुपये प्रति माह, लेफ्टिनेंट कर्नल को 1,032 रुपये और मेजर को 929 रुपये प्रति माह मिलते थे। 

हालांकि, अंग्रेजों के आने से कुछ मायनों में सामाजिक व्यवस्था में बदलाव भी आए। उन्होंने कानूनी तौर पर जाति आधारित भेदभाव को समाप्त करने के प्रयास किए (जैसे छुआछूत के खिलाफ कानून)। इसके बावजूद, सामाजिक स्तर पर जातीय भेदभाव और उसका प्रभाव लंबे समय तक बना रहा और आज भी उसके अवशेष देखे जा सकते हैं।

मनुवादी युग में भेदभाव का मुख्य आधार जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था थी, जबकि अंग्रेजों के शासनकाल में यह औपनिवेशिक और नस्लीय श्रेष्ठता पर आधारित थी। दोनों ही अवधियों में समाज में गहरा असमानता मौजूद थी, लेकिन उसके मूल कारण और प्रकटीकरण में अंतर था।


 

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