झकझोर दुनिया हो झकझोर दुनिया व समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई -जनवादी कवि गोरख पांडेय ।
29 जनवरी को इनके पुण्यतिथि पर कोटि कोटि नमन !
गोरख सिजोफ्रेनिया से परेशान रहते थे, यह परेशानी धीरे-धीरे इतना बढ़ गई कि 29 जनवरी 1989 को इस कवि ने आत्महत्या कर ली। उस समय वह जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में रिसर्च एसोसिएट थे।
जनता की चले पलटनियां
हिले ले झकझोर दुनिया।
हिले ले पहड़वा
हिले ले नदी तलवा
सगरे में उठे रे हिलोरवा
हिले ले झकझोर दुनिया।
विज्ञापन
लड़े ले गुलमवा लड़े ले मज़लुमवा
लड़े ले गुलमवा लड़े ले मज़लुमवा
लड़े ले ग़रीबवा-बेकमवा
हिले ले झकझोर दुनिया
लड़े ले किसनवां लड़े ले मजदूरवा
लड़े मिलि खुनवां-पसीनवां
हिले ले झकझोर दुनिया
लड़े ली बहिनियां, लड़े महतरिया
लड़े ली बहिनियां, लड़े महतरिया
लड़े सब दिख के संघतिया
हिले ले झकझोर दुनिया
ढहे जमींदरवा, ढहेला पूंजीपतिया
ढहे लूटमार के कानूनवां
हिले ले झकझोर दुनिया
समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई ।
हाथी से आई, घोड़ा से आई
अँगरेजी बाजा बजाई।
नोटवा से आई, बोटवा से आई
बिड़ला के घर में समाई।
गांधी से आई, आँधी से आई
टुटही मड़इयो उड़ाई।
कांगरेस से आई, जनता से आई
झंडा से बदली हो आई।
डालर से आई, रूबल से आई
देसवा के बान्हे धराई।
समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई।
Comments
Post a Comment